बुधवार, 11 फ़रवरी 2009

15. ज़िन्दगी रेत का महल

ज़िन्दगी रेत का महल

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ज़िन्दगी रेत का महल है
हर लहर आकर बिखेर जाती है,
सपनों से रेत का महल हम फ़िर बनाते हैं
जानते हैं बिखर जाना है फ़िर भी 

हमारी मौजूदगी के निशान तो रेत पे न मिलेंगे कभी
किसी के दिल में चुपके से इक हूक-सी उठेगी कभी,
ज़ख्म तो पाया हर पग पर हमने
पर टीस उठेगी ज़रूर सीने में किसी के

रेत के महल-सा स्वप्न हमारा
क्या मुमकिन कि समंदर बख़्श दे कभी?
जीवन हो या रिश्ता, वक़्त की लहरों से बह तो जाना है ही
फिर भी सहेजते हैं रिश्ते, बनाते हैं रेत से महल

- जेन्नी शबनम (19. 9. 2008)
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14. तुमने सब दे दिया (अनुबन्ध/तुकान्त) (पुस्तक- नवधा))

तुमने सब दे दिया

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एक इम्तिहान-सा था, कल जो आकर गुज़र गया
वक़्त भी मुस्कुराया, जब तुमने मुझे जिता दिया 

एक वादा था तुम्हारा, कि सँभालोगे तुम मुझे 
लड़खड़ाए थे क़दम मेरे, तुमने निभा दिया 

रिश्ते ये कह गए, कि हम नहीं इस सदी के
इक ख़्वाब था जो साझा, वो मुझको दे दिया 

एक दिन होगा जब आएगी ज़रूर क़यामत 
उससे पहले तुमने हर क़यामत बरपा दिया। 

दहकता रहा मेरा जिस्म, पर तुम न जल सके
भरोसा तुमने 'शब' का, बस पुख़्ता कर दिया 

-जेन्नी शबनम (9. 2. 2009)
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13. ज़ब्त-ए-ग़म (तुकान्त)

ज़ब्त-ए-ग़म

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सुर्ख़ स्याही से सफ़ेद पन्नों पर
लिखी है किसी के ज़ब्त-ए-ग़म की तहरीर

शब्द के सीने में ज़ब्त है
किसी के जज़्बात की जागीर

दफ़न दर्द को कुरेदकर
गढ़ी गई है किताब रंगीन

बड़े जतन से सँभाल रखी है
किसी के अंतर्मन की तस्वीर

इजाज़त नहीं ज़माने को कि
बाँच सके किसी की तक़दीर

हश्र तो ख़ुदा जाने क्या हो
जब कोई तोड़ने को हो व्याकुल ज़ंजीर

नतीजा तो कुछ भी नहीं बस
संताप को मिल जाएगी इक ज़मीन

दर्द और ज़ख्म से जैसे
रच गई ज़ब्त-ए-ग़म की कहानी हसीन

गर रो सको तो पढ़ो कहानी
टूटी-बिखरी दफ़न है किसी की मुरादें प्राचीन

- जेन्नी शबनम (नवम्बर 9, 2008)
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12. संतान की आहुति

संतान की आहुति

(यह सिर्फ़ कविता नहीं, आप सभी के सोचने के लिए सवाल है। परिवार द्वारा अपनी संतान का क़त्ल कर देना क्योंकि उसने प्रेम करने का गुनाह किया। मनचाही ज़िन्दगी जीने की सज़ा क्या इतनी क्रूरता होती है? प्रेम पाप हो चुका शायद, तो कोई ईश्वर से भी प्रेम न करे!)

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प्रेम के नाम पे आहुति दी जाती 
प्रेम के लिए बलि चढ़ती,
कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि
वो वही संतान है, जो मुरादों से मिली
एक माँ के ख़ून से पनपी
प्रेम की एक दिव्य निशानी है

एक आँसू न आए हज़ार जतन किए जाते
हर ख़्वाहिश पे दम भर लुटाए जाते
दुनिया की ख़ुशी वारी जाती
एक हँसी पे सब क़ुर्बान होते

गर संतान अपनी मर्ज़ी से जीना चाहे
अपनी सोच से दुनिया देखे
अपनी पहचान की लगन लगे
अपने ख़्वाब पूरा करने को हो प्रतिबद्ध
फिर वही संतान बेमुराद हो जाती
जो दुआ थी कभी अब बददुआ पाती
घर का चिराग कलंक कहलाता
चाहे दुनिया वो रौशन करता

इंतिहा तो तब जब
मनचाहे साथी की ख़्वाहिश
पूरी करती संतान

समान जाति तो फिर भी क़ुबूल
संस्कारों से ढाँप, जगहँसाई से राहत देता परिवार
पर तमाम उम्र जिल्लत और नफ़रत पाती संतान

ग़ैर जाति में मिल जाए जो मन का मीत
घर से तिरस्कृत और बहिष्कृत कर देता परिवार
अपनों के प्यार से आजीवन महरूम हो जाती संतान

धर्म से बाहर जो मिल जाए किसी को अपना प्यार
मानवता की सारी हदों से गुज़र जाता परिवार

कथित आधुनिक परिवार हो अगर
इतना तो संतान पे होता उपकार
रिश्तों से बेदख़ल और जान बख़्श का मिलता वरदान

ख़ानदानी-धार्मिक का अभिमान, करे जो परिवार
इतना बड़ा अनर्थ... कैसे मिटे कलंक...
दे संतान की आहुति, बचा ली अपनी भक्ति

हर ख़ुशी पूरी करते, जीवन की ख़ुशी पे बलि चढ़ाते
इज़्ज़त की गुहार लगाते, संतान के ख़ून से अपनी इज़्ज़त बचाते,
प्रेम से है प्रतिष्ठा जाती, हत्यारा कहलाने से है प्रतिष्ठा बढ़ती
जाने कैसा संस्कारों का है खेल, प्रेम को मिटा गर्वान्वित हैं होते

- जेन्नी शबनम (8. 11. 2008) 
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11. मेरी बिटिया का जन्मदिन

मेरी बिटिया का जन्मदिन

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मेरी बिटिया का जन्मदिन आया, स्वर्णिम सुहाना नया सवेरा लाया
जन्मदिन मनाने सूरज आया, सर्दी और नर्म धूप साथ है लाया
मैंने ख़ूब बड़ा एक केक मँगाया, गुब्बारों से घर है सजाया
सगे-सम्बन्धी सब अपनों ने आशीष दिए, सबने मिलकर जश्न मनाया!

झूमती गाती 'ख़ुशी' मचलती, दोस्तों संग है धूम मचाती
हर दिन खूब है इठलाती सँवरती, 'तितली'-सी है आज उड़ती फिरती
नए कपड़े पहन फूलों-सी खिलती, बड़ी अदा से 'कुकू'-सी चहकती
ख़ूब सजी मासूम-सी इतराती, मेरी बिटिया प्यारी है दिखती!

ख़ुशियों से दामन सदा भरा रहे, युगों तक चमके तेरा नाम
जन्म-जन्मान्तर तक यूँ ही दमके, रौशन रहे सदा तेरा नाम
तू जीए यूँ ही वर्षों हज़ार, सुखों से भरा रहे तेरा भण्डार
तू मुस्कुराए यूँ ही उम्र तमाम, मैं ना रहूँ पर रहेगा सदा मेरा प्यार!

- जेन्नी शबनम (7. 1. 2009)
(मेरी बेटी परान्तिका के जन्मदिन पर)
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