बुधवार, 22 जुलाई 2009

74. शमा बुझ रही (तुकान्त)

कुछ शेर हैं नज़्म-सा सही, नाम क्या दूँ ये पता भी नहीं,
जो नाम दें आपकी मर्ज़ी, पेश है शमा पर मेरी एक अर्ज़ी

शमा बुझ रही

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शमा बुझ रही, आओ जल जाओ, है नशीली सुरूर मयकशी
मिट गई तो फिर करनी होगी, उम्र तन्हा बसर, ऐ परवानों 

बुझने से पहले हर शमा, है धधकती बेइंतिहा दिलकशी
बुझ रही शमा तो आ पहुँचे, फिर क्यों मगर, ऐ जलनेवालों

सहर होने से पहले है बुझना, फिर क्यों भला छायी मायूसी
ढूँढ़ लो अब कोई हसीन शमा, बदलकर डगर, ऐ मतवालों

जाओ लौट जाओ हमदर्द मुसाफ़िरों, अब हुई साँस आख़िरी
फ़िजूल ही ढल गया, जाने क्यों उम्र का हर पहर, ऐ सफ़रवालों

मिज़ाज अब क्या पूछते हो, बस सुन लो उसकी बेबस ख़ामोशी
जल रही थी जब तड़पकर, तब तो न लिए ख़बर, ऐ शहरवालों

सलीक़ा बताते हो मुद्दतों जीने का क्यों, है ये वक़्त-ए-रुख़सती
बेशक शमा से सीख लो, शिद्दत से मरने का हुनर, ऐ उम्रवालों

शमा की हर साँस तड़प रही जलने को, बुझ जाना है नियति
इल्तिज़ा है, दम टूटने से पहले देख लो एक नज़र, ऐ दिलवालों

जल चुकी दम भर शमा, जान लो 'शब', है ये दस्तूर-ए-ज़िन्दगी
ख़त्म हुआ, अब मान भी लो, इस शमा का सफ़र, ऐ जहाँवालों

- जेन्नी शबनम (25. 5. 2009)
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