बुधवार, 10 नवंबर 2010

187. आदमी और जानवर की बात

आदमी और जानवर की बात

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रौशन शहर, चहकते लोग
आदमी की भीड़, अपार शोर
शुभ आगमन की तैयारी पूरी
रात्रि पहर घर आएगी समृद्धि 

पर जाने क्या हुआ, कल रात
वो रोते-भौंकते रहे, सारी रात
बेदम होते रहे, कौन समझे उनकी बात
आदमी तो नहीं, जो कह सके अपनी बात 

कल के दिन, न मिले कोई अशुभ सन्देश
शुभ दिन में श्वान का रोना, है अशुभ संकेत
पास की कोठी का मालिक, झल्लाता रहा पूरी रात
जाने कैसी विपत्ति आए, हे प्रभु! करना तुम निदान 

पेट के लिए हो जाए, आज का कुछ तो जुगाड़
सुबह से सब शांत, वो निकल पड़े लिए आस
कोठी का मालिक, अब जाकर हुआ संतुष्ट
शायद आपदा किसी और के लिए, है बड़ा ख़ुश 

अमावास की रात, सजी दीपों की क़तार
हर तरफ पटाखों की, गूँजती आवाज़
भय से आक्रान्त, वो लगे चीखने-भौंकने
नहीं समझ, वो किससे अपना डर कहें 

जा दुबके, उसी बुढ़िया के बिस्तर में
जहाँ वे मिल बाँट, खाते-सोते वर्षों से
दुलार से रोज़ उनको, सहलाती थी बुढ़िया
सुन पटाखे की तेज़ गूँज, कल ही मर गई थी बुढ़िया 

कौन आज उनको, चुप कराए
कौन आज कुछ भी, खाने को दे
आज, कचरा भी तो नहीं कहीं
ख़ाली पेट, चलो आज यूँ ही सही 

ममतामयी हाथ, कल से निढ़ाल पसरा
ख़ौफ़ है, और उस खोह में मातम पसरा
आदमी नहीं, वो थी उनकी-सी ही, उनकी जात
वो समझती थी, आदमी और जानवर की बात 

जब कोई पत्थर मार, उनको करता ज़ख़्मी
एक दो पत्थर खा, पगली बुढ़िया उनको बचाती
अब तो सब ख़त्म, कल ले जाएँगे यहाँ से आदमी उसको
वो मरें तो जहाँ फेंकते उनको, वहाँ ही कल फेंक देंगे बुढ़िया को 

- जेन्नी शबनम (5. 11. 2010)
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