शनिवार, 31 दिसंबर 2011

309. बीत गया

बीत गया

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तय मौसम का एक मौसम
अच्छा हुआ बीत गया
हार का एक मनका
अच्छा हुआ टूट गया।  
समय का मौसम
मन का मनका
साथ-साथ बिलख पड़े
आस का पंछी रूठ गया। 
दोपहरी जलाती रही
साँझ कभी आती नहीं
ये भी किस्सा ख़ूब रहा
तमाशबीन मेरा मन रहा। 
हर कथा का सार वही
जीवन का आधार वही
वक़्त से रंज क्यों
फ़लसफ़ा मेरा कह रहा। 

- जेन्नी शबनम (31. 12. 2011)
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गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

308. एक अदद रोटी

एक अदद रोटी

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सुबह से रात
रोज़ सबको परोसता
गोल-गोल प्यारी-प्यारी
नर्म मुलायम रोटी,
मिल जाती
काश! उसे भी
कभी खाने को गर्म-गर्म रोटी,
ठिठुरती ठंड की मार
और उस पर गर्म रोटी की चाह
चार टुकड़ों में बँट सके
ले आया चोरी से एक रोटी,
ठंडी रोटी गर्म होने लगी
लड़ पड़े सब
जो झपट ले होगी उसकी
सभी को चाहिए पूरी की पूरी रोटी,
छीना-झपटी हाथा-पाई
धू-धू कर जल गई
हाय री क़िस्मत
लगी न किसी के हाथ रोटी,
छाती पीटो कि बदन तोड़ो
अब कल ही मिलेगी
बची-खुची बासी रोटी,
न इसके हिस्से
न उसके हिस्से
कुछ नहीं किसी के हिस्से
अरसे बाद चूल्हे ने खाई
एक अदद रोटी। 

- जेन्नी शबनम (21. 12. 2011)
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मंगलवार, 20 दिसंबर 2011

307. बेलौस नशा माँगती हूँ

बेलौस नशा माँगती हूँ

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सारे नशे की चीज़ मुझसे ही क्यों माँगती हो
कहकर हँस पड़े तुम
मैं भी हँस पड़ी
तुमसे न माँगू तो किससे भला
तुम ही हो नशा
तुम से ही ज़िन्दगी।  

तुम्हारी हँसी बड़ी प्यारी लगती है
कहकर हँस पड़ती हूँ
मेरी शरारत से वाक़िफ़ तुम
सतर्क हो जाते हो
एक संजीवनी लब पे
मौसम में पसरती है खुमारी। 

जाने किस नशे में तुमने कहा
मेरा हाथ छोड़ रही हो
और झट से तुम्हारा हाथ थाम लिया
धत्त! ऐसे क्यों कहते हो
तुम ही तो नशा हो
तुमसे अलग कहाँ रह पाऊँगी। 

तुम कहते कि शर्मीले हो
मैं ठठाकर हँस पड़ती हूँ
हे भगवान्! तुम शर्मीले!
तुम्हारी सभी शरारतें मालूम है मुझे
याद है, वो जागते सपनों-सी रात
जब होश आया और पल भर में सुबह हो गई। 

ज़िन्दगी उस दिन फिर से खिल गई
जब तुमने कहा चुप-चुप क्यों रहती हो
सुलगते अलाव की एक चिंगारी मुझपर गिरी
और मेरे ज़ेहन में तुम जल उठे
तुम्हारा नशा पसरा मुझपर
ज़िन्दगी ने शायद पहली उड़ान भरी। 

तुम्हारी दी हुई हर चीज़ पसंद है
हर एहसास बस तुमसे ही
एक ही जीवन
पल में समेट लेना चाहती हूँ
सिर्फ़ तुम ही तो हो
जिससे अपने लिए बेलौस नशा माँगती हूँ। 

- जेन्नी शबनम (दिसम्बर 20, 2011)
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शनिवार, 17 दिसंबर 2011

306. अब डूबने को है

अब डूबने को है

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बहाने नहीं हैं पलायन के
न ही कोई अफ़साने हैं मेरे
न कोई ऐसा सच
जिससे तुम भागते हो
और सोचते हो कि मुझे तोड़ देगा,
सारे सच जो अग्नि से प्रज्वलित होकर निखरे हैं
तुम जानते हो दोस्त
वो मैंने ही जलाए थे,
पल-पल की बातें जब भारी पड़ गई
एक दोने में लपेटकर नदी में बहा दिया 
फिर वो दोना एक मछुआरे ने मुझ तक पहुँचा दिया
क्योंकि उसपर मैंने अपने नाम लिख दिए थे
ताकि जब जल में समाए तो
अपने साथ मुझे भी समाहित कर ले,
अब उस दोने को जला रही हूँ
सारे सच पक-पककर
गाढे रंग के हो गए हैं,
वो देखो मेरे दोस्त
सूरज-सा तपता मेरा सच
अब डूबने को है। 

- जेन्नी शबनम (17. 11. 2011)
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गुरुवार, 15 दिसंबर 2011

305. जाने कहाँ गई वो लड़की (पुस्तक - 31)

जाने कहाँ गई वो लड़की

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सफ़ेद झालर वाली फ्रॉक पहने
जिसपे लाल-लाल फूल सजे
उछलती-कूदती, जाने कहाँ गई वो लड़की। 
बकरी का पगहा थामे, खेतों के डरेर पर भागती
जाने क्या-क्या सपने बुनती, एक अलग दुनिया उसकी।  
भक्तराज को भकराज कहती
क्योंकि क-त संयुक्त में उसे 'क' दिखता है
उसके अपने तर्क, अजब जिद्दी लड़की। 
बात बनाती ख़ूब, पालथी लगाकर बैठती
क़लम दवात से लिखती रहती, निराली दुनिया उसकी। 
एक रोज़ सुना शहर चली गई, गाँव की ख़ुशबू साथ ले गई
उसके सपने उसकी दुनिया, कहीं खो गई लड़की। 
साँकल की आवाज़, किवाड़ी की चरचराहट
जानती हूँ वो नहीं, पर इंतज़ार रहता अब भी। 
शायद किसी रोज़ धमक पड़े, रस्सी कूदती-कूदती
दही-भात खाने को मचल पड़े, वो चुलबुली लड़की। 
जाने कहाँ गई, वो मानिनी मतवाली
शायद शहर के पत्थरों में चुन दी गई
उछलती-कूदती वो लड़की। 

- जेन्नी शबनम (14. 11. 2011)
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शनिवार, 10 दिसंबर 2011

304. आदम जात की बात नहीं

आदम जात की बात नहीं 

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प्यार की उम्र क्या होती है?   
साथ जीने की शर्त क्या होती है?   
अजब सवाल पूछते हो   
प्यार कि उम्र कभी ख़त्म नहीं होती   
प्यार में कोई शर्त नहीं होती।    
फिर ये कैसा प्यार   
हर बार एक नयी अनकही शर्त   
जिसे मान लेना होता है।    
उम्र के ढलान पर   
तुम्हारी निगाहें किसे ढूँढती हैं?   
साथ तो होते हैं लेकिन   
उबलती शिराएँ   
समझते हो न   
सहन नहीं होती।   
सारी शर्तों को मानते हुए   
हर अनकहा समझते हुए   
फिर ऐसा क्यों?   
हाँ सच है   
रूह से रूह की बात   
परी कथाओं की बात है   
आदम जात की बात नहीं।    

- जेन्नी शबनम (10. 12. 2011) 
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सोमवार, 5 दिसंबर 2011

303. अपनी-अपनी धुरी (पुस्तक - 106)

अपनी-अपनी धुरी

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अपनी-अपनी धुरी पर चलते, पृथ्वी और ग्रह-नक्षत्र
जीवन-मरण हो या समय का रथ
नियत है सभी की गति, धुरी और चक्र। 
बस एक मैं, अपनी धुरी पर नहीं चलती
कभी लगाती अज्ञात के चक्कर
कभी वर्जित क्षेत्रों में घुस
मंथर तो कभी विद्युत से भी तेज
अपनी ही गति से चलती। 
न जाने क्यों इतनी वर्जनाएँ हैं
जिन्हें तोड़ना सदैव कष्टप्रद है
फिर भी उसे तोड़ना पड़ता है
अपने जीने के लिए, धुरी से हटकर चलना पड़ता है। 
बिना किसी धुरी पर चलना
सदैव भय पैदा करता है
चोट खाने की प्रबल संभावना होती है
कई बार सिर्फ़ पीड़ा नहीं मिलती, आनन्द भी मिलता है
पर कहना कठिन है
आने वाला पल किस दशा में ले जाएगा
जीवन को कौन-सी दिशा देगा
जीवन सँवरेगा, या फिर सदा के लिए बिखर जाएगा। 
कैसे समझूँ, बिना धुरी के लक्ष्यहीन पथ
नियति है या मेरी वांछित जीवन दिशा
जिस पर चलकर, पहुँच जाऊँगी, किसी धुरी पर
और चल पडूँगी, नियत गति से
बिना डगमगाए, अपनी राह
जो मेरे लिए पहले से निर्धारित है। 

- जेन्नी शबनम (4. 12. 2011)
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