रविवार, 13 फ़रवरी 2011

212. एक स्वप्न की तरह

एक स्वप्न की तरह

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बनते-बनते जाने कैसे
मैं कई सवाल बन गई हूँ   
जिनके जवाब
सिर्फ़ तुम्हारे पास हैं 
पर तुम बताओगे नहीं
मैं यह भी जानती हूँ,
शिकस्त खाना तुम्हारी आदत नहीं
और मात देना मेरी फ़ितरत नहीं,
फिर भी
जाने क्यों
तुम ख़ामोश होते हो
शायद ख़ुद को रोके रखते हो
कहीं मेरी आवारगी
मेरी यायावरी
तुम्हे डगमगा न दे
या फिर तुम्हारी दिशा बदल न दे,
मेरे हमदर्द!
फ़िक्र न करो
कुछ नहीं बदलेगा
जवाब तुमसे पुछूँगी नहीं
मैं यूँ ही सवाल बनकर
रह जाऊँगी
ख़ुद में गुम
तुमको यूँ ही दूर से देखते हुए
एक स्वप्न की तरह!

- जेन्नी शबनम (11. 2. 2011)
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