मंगलवार, 8 मार्च 2011

217. आज़ादी चाहती हूँ बदला नहीं

आज़ादी चाहती हूँ बदला नहीं

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तुम कहते हो-

‘’अपनी क़ैद से आज़ाद हो जाओ।’’

बँधे हाथ मेरे, सींखचे कैसे तोडूँ ?

जानती हूँ, उनके साथ मुझमें भी ज़ंग लग रहा है

अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद

एक हाथ भी आज़ाद नहीं करा पाती हूँ।


कहते ही रहते हो तुम

अपनी हाथों से काट क्यों नहीं देते मेरी जंज़ीर?

शायद डरते हो

बेड़ियों ने मेरे हाथ मज़बूत न कर दिए हों

या फिर कहीं तुम्हारी अधीनता अस्वीकार न कर दूँ

या कहीं ऐसा न हो

मैं बचाव में अपने हाथ तुम्हारे ख़िलाफ़ उठा लूँ।


मेरे साथी! डरो नहीं तुम

मैं महज़ आज़ादी चाहती हूँ बदला नहीं

किस-किस से लूँगी बदला

सभी तो मेरे ही अंश हैं

मेरे द्वारा सृजित मेरे अपने अंग हैं

तुम बस मेरा एक हाथ खोल दो

दूसरा मैं ख़ुद छुड़ा लूँगी

अपनी बेड़ियों का बदला नहीं चाहती

मैं भी तुम्हारी तरह आज़ाद जीना चाहती हूँ।


तुम मेरा एक हाथ भी छुड़ा नहीं सकते

तो फिर आज़ादी की बातें क्यों करते हो?

कोई आश्वासन न दो, न सहानुभूति दिखाओ

आज़ादी की बात दोहराकर

प्रगतिशील होने का ढोंग करते हो

अपनी खोखली बातों के साथ 

मुझसे सिर्फ़ छल करते हो

इस भ्रम में न रहो कि मैं तुम्हें नहीं जानती हूँ

तुम्हारा मुखौटा मैं भी पहचानती हूँ।


मैं इन्तिज़ार करूँगी उस हाथ का 

जो मेरा एक हाथ आज़ाद करा दे

इन्तिज़ार करूँगी उस मन का 

जो मुझे मेरी विवशता बताए बिना साथ चले

इन्तिज़ार करूँगी उस वक़्त का

जब जंज़ीर कमज़ोर पड़े और मैं अकेली उसे तोड़ दूँ।


जानती हूँ, कई युग और लगेंगे

थकी हूँ, पर हारी नहीं

तुम जैसों के आगे विनती करने से अच्छा है

मैं वक़्त या उस हाथ का इन्तिज़ार करूँ।


-जेन्नी शबनम  (8. 3. 2011)
(अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस पर)
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