मंगलवार, 28 जून 2011

258. नन्ही भिखारिन (पुस्तक - 84)

नन्ही भिखारिन

*******

यह उसका दर्द है,
पर मेरे बदन में 
क्यों रिसता है?
या खुदा! 
नन्ही-सी जान, कौन-सा गुनाह था उसका?
शब्दों में खामोशी, आँखों में याचना, पर शर्म नही
हर एक के सामने, हाथ पसारती
सौ में से कोई एक कुछ दे जाता
उतने में ही संतुष्ट!
थोड़ा थमकर, गिनकर   
फिर अगली गाड़ी के पास, बढ़ जाती। 
उफ़! 
उसे पीड़ा नही होती?
पर क्यों नही होती?
कहते हैं पिछले जन्म का इस जन्म में 
भुगतता है जीवन
फिर इस जन्म का भुगतना
कब सुख पाएगा जीवन?
मन का धोखा या सब्र की एक ओट
जीने की विवशता
पर मुनासिब भी तो नही अंत। 
कुछ सिक्कों की खनक में, खोया बचपन
फिर भी शांत, जैसे यही नसीब
जीवित हैं, जीना है, नियति है
ख़ुदा का रहम है।  
उफ़!
उसे खुदा पर रोष नही होता?
पर क्यों नही होता?
उसका दर्द उसका संताप, उसकी नियति है
उसका भविष्य उसका वर्तमान, एक ज़ख़्म है। 
यह उसका दर्द है
पर मेरे बदन में
क्यों रिसता है?

- जेन्नी शबनम (10. 1. 2009)
_________________________