गुरुवार, 7 जुलाई 2011

263. स्तब्ध खड़ी हूँ

स्तब्ध खड़ी हूँ

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ख़्वाबों के गलियारे में, स्तब्ध मैं हूँ खड़ी
आँखों से ओझल, ख़ामोश पास तुम भी हो खड़े,
साँसे हैं घबराई-सी, वक़्त भी है परेशान खड़ा
जाने कौन सी विवशता है, वक़्त ठिठका है
जाने कौन सा तूफ़ान थामे, वक़्त ठहरा है। 

मेरी सदियों की पुकार तुम तक नहीं पहुँचती
तुम्हारी ख़ामोशी व्यथित कर रही है मुझे, 
अपनी आँखों से अपने बदन का लहू पी रही
और जिस्म को आँसुओं से सहेज रही हूँ। 

मैं, तुम और वक़्त
सदियों से सदियों का तमाशा देख रहे हैं
न हम तीनों थके न सदियाँ थकीं, 
शायद एक और इतिहास रचने वाला है
या शायद एक और बवंडर आने वाला है। 

- जेन्नी शबनम (23. 1. 2009)
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