बुधवार, 3 अगस्त 2011

268. कह न पाऊँगी कभी

कह न पाऊँगी कभी

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अपने जीवन का सत्य
कह न पाऊँगी किसी से कभी
अपने पराए का भेद समझती हूँ
पर जानती हूँ
कह न पाऊँगी किसी से कभी

न जाने कब कौन अपना बनकर
जाल बिछा रहा हो
किसी तरह फँसकर
उसके जलसे का
मैं बस हिस्सा रह जाऊँ 

बहुत घुटन होती है
जब-जब भरोसा टूटता है
किसी अपने के सीने से
लिपट जाने का मन करता है 

समय-चक्र और नियति
कहाँ कौन जान पाया है?
किसी पराए की प्रीत
शायद प्राण दे जाए
जीवन का कारण बन जाए
पर पराए का अपनापन
कैसे किसी को समझाएँ?

अपनों का छल
बड़ा घाव देता है
पराए से अपना कोई नहीं 
मन जानता है
पर जानती हूँ
कह न पाऊँगी किसी से कभी। 

- जेन्नी शबनम (19. 7. 2011)
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