बुधवार, 1 मई 2013

403. औक़ात देखो

औक़ात देखो

*******

पिछला जन्म  
पाप की गठरी   
धरती पर बोझ  
समाज के लिए पैबंद   
यह सब सुनकर भी  
मुँह उठाए, तुम्हें ही अगोरा 
मन टूटा, पर तुम्हें ही देखा  
असाध्य तुम, पर जीने की सहूलियत तुमसे 
मालूम है मुझे    
मेरी पैदाइश हुई ही है 
उन कामों को करने के लिए, जो निकृष्ट हैं  
जिसे करना, तुम अपनी शान के ख़िलाफ़ मानते हो  
या तुम्हारी औक़ात से परे है 
काम करना मेरा स्वभाव है  
मेरी पूँजी भी है और मेरा धर्म भी  
फिर भी  
मैं भाग्यहीन 
मैं बेग़ैरत   
मैं कृतघ्न 
मैं फ़िजूल 
जान लो तुम   
मैंने अपना सारा वक़्त दिया है तुम्हें 
ताकि तुम चैन से आँखें मूँद सो सको  
हर प्रहार को अपने सीने पर झेला है 
ताकि तुम सुरक्षित रह सको   
पसीने से लिजबिज मेरा बदन 
चौबीसों पहर, सिर्फ़ तुम्हारे लिए खटा है  
ताकि तुम मनचाही ज़िन्दगी जी सको     
कभी चैन के पल नहीं ढूँढ़े मैंने  
कभी नहीं कहा कि 
ज़रा देर को रुकने दो 
होश सँभालने से लेकर  
जिस्म की ताकत खोने तक 
दुनिया का बोझ उठाया है मैंने  
अट्टालिकएँ मुझे जानती हैं  
मेरे बदन का ख़ून चखा है उसने  
लहलहाती फ़सलें मेरी सखा हैं  
मुझसे ही पानी पीती हैं   
फुलवारी के फूल  
अपनी सुगंध की उत्कृष्टता  
मुझसे ही पूछते हैं  
मेरे बिना तुम सब  
अपाहिज हो 
तुम बेहतर जानते हो   
एक पल को अगर रुक जाऊँ 
दुनिया थम जाएगी      
चंद मुट्ठी भर तुम सब  
मेरे ही बल पर शासन करते हो  
फिर भी कहते- 
''अपनी औक़ात देखो''   

- जेन्नी शबनम (1. 5. 2013) 
(मज़दूर दिवस) 
____________________