शुक्रवार, 24 जनवरी 2014

439. निर्लज्जता

निर्लज्जता

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स्वीकार है मुझे 
मेरी निर्लज्जता
आज दिखाया है भरी भीड़ को मैंने
अपने वो सारे अंग
जिसे छुपाया था जन्म से अब तक, 
सीख मिली थी-
हमारा जिस्म
हमारा वतन है और मज़हब भी
जिसे साँसें देकर बचाना
हमारा फ़र्ज़ है और हमारा धर्म भी,
जिसे कल
कुछ मादा-भक्षियों ने
कुतर-कुतर कर खाया था
और नोच खसोटकर
अंग-अंग में ज़हर ठूँसा था,
जानती हूँ
भरी भीड़ न सबूत देगी
न कोई गवाह होगा
मुझपर ही सारा इल्ज़ाम होगा
यह भी मुमकिन है
मेरे लिए कल का सूरज कभी न उगे
मेरे जिस्म का ज़हर
मेरी साँसों को निगल जाए,
इस लिए आज
मैं निर्लज्ज होती हूँ
अपना वतन और मज़हब 
समाज पर वारती हूँ
शायद 
किसी मादा-भक्षी की माँ बहन बेटी की रगों में 
ख़ून दौड़े
और वो काली या दूर्गा बन जाए

- जेन्नी शबनम (24. 1. 2014)
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